व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> मनुष्य जीवन का रहस्य मनुष्य जीवन का रहस्यशिवरतन अरोड़ा
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मनुष्य जीवन को सरल, सहज और सफल बनाए रखने के सूत्रों को समेटने का प्रयास
डॉ. शिवरतन अरोड़ा ने अपनी पुस्तक ‘मनुष्य जीवन का रहस्य’ में जीवन का रहस्य प्रकट किया है। उन्होंने अपनी छोटी-सी पुस्तक में साधु-सन्तों के प्रवचनों का निचोड़ और मनुष्य जीवन की उपयोगिता के साथ-साथ नैतिक आचरण व स्वास्थ्य के बारे में लिख कर मानव-जीवन पर जो उपकार किया है, वह प्रशसनीय तो है ही, अनुकरणीय भी है।
डॉ. अरोड़ा ने एलोपैथी चिकित्सक होते हुए भी इस काम को केवल अपनी अजीविका का साधन नहीं बनाया। उन्होंने इस पुस्तक में प्राकृतिक जीवन और चिकित्सक पर ज़ोर दिया है। उन्होंने इस छोटी-सी पुस्तक में यह बताने का प्रयास किया है कि उचित आहार-विहार, सात्विक जीवन, शारीरिक श्रम, व्यायाम, उच्च विचार और मानसिक शान्ति आपको डॉक्टर व औषधि से बचाते हैं। उन्होंने इस पुस्तक में मनुष्य जीवन को प्रकृति और परमात्मा की एक महान सौगात बताते हुए जीवन को सरल, सहज और सफल बनाए रखने के सूत्रों को समेटने का प्रयास किया है।
डॉ. अरोड़ा मानव जीवन को उत्तम बनाने के लिये उत्सुक हैं और चिन्तित भी हैं, इसीलिये उन्होंने आज के आदमी को रोग और और दवाइयों से बचने के लिये अरोग्यता, आध्यात्मिकता, व्यक्तित्व विकास आदि पक्षों को सजाते हुए, यह पुस्तक प्रस्तुत की है।
यह पुस्तक सुखद जीवन जीने का मार्गदर्शन करती है, जो सभी धर्मावलम्बियों के लिये अनुकरणीय है। डॉ. अरोड़ा ने इस पुस्तक को लिखकर जनकल्याण का कार्य किया है।
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठक शुभ-संकल्पित होकर, न केवल स्वयं का अपितु दूसरों का भी मार्गदर्शन कर सकता है।
मनुष्य का जीवन प्रकृति और परमात्मा की एक महान सौगात है। जीवन को इस तरह जिया जाना चाहिए कि जीवन स्वयं वरदान बन जाए। मनुष्य का जीवन बाँस की पोंगरी की तरह है। यदि जीवन में स्वर और अंगुलियों को साधने की कला आ जाए, तो बाँस की पोंगरी भी बाँसुरी बनकर संगीत के सुमधुर संसार का सृजन कर सकती है। भला जब किसी बाँस की पोंगरी से संगीत पैदा किया जा सकता है, तो जीवन और माधुर्य और आनन्द का संचार क्यों नहीं किया जा सकता ?
स्वस्थ, प्रसन्न और मधुर जीवन के लिए हम अपने नज़रिए को ऊँचा और महान बनाएँ। जिस व्यक्ति की सोच और दृष्टि ऊँची और सकारात्मक होती है, वह अपने जीवन में कभी असफल नहीं हो सकता। सकारात्मक सोच संसार का वह विलक्षण मंत्र है कि जिससे यह सध गया, वह सफल जीवन का स्वतः स्वामी बन गया।
व्यक्ति को चाहिए कि वह आत्मविश्वास का स्वामी बने। कोई अगर कहे कि दुनिया में कौन सा ऐसा शस्त्र है, जिस एक शस्त्र से सौ-सौ शस्त्रों का मुकाबला किया जा सकता है, तो मैं कहूँगा कि वह शस्त्र है आत्मविश्वास। आत्मविश्वास के बलबूते पर जीवन की बाधाओं को तो क्या, बाधाओं के बड़े से बड़े पार्वती को भी लांघा जा सकता है। हम अपने जीवन का लक्ष्य बनाएँ, पुरुषार्थ जगाएँ, सोच और दृष्टि को लक्ष्य के अनुरूप होने दें। जिसके साथ आत्मविश्वास का संबल है, वह अविचल भाव से लक्ष्य की ओर बढ़ता जाएगा और लक्ष्य को पाकर ही विश्राम लेगा।
जीवन में सुख और दुःख दोनों ही आते-जाते रहते हैं। दुःख के अनंतर सुख आता है और सुख के अनंतर दुःख आता है। इस प्रकार सुख और दुःख आपस में एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। सुख-दुःख व दुःख-सुख की यह भाव श्रृंखला न जाने कब से चली आ रही हैं। इस संसार में न तो कोई पूर्ण सुखी है और न ही कोई पूर्ण दुःखी। यहाँ प्रत्येक मनुष्य प्रभु की माया के छलावे में आकर जीवन-भर बेहोशीपूर्ण व्यवहार करता रहता है। उसे यह जानने की फुर्सत ही नहीं मिलती कि वास्तव में वह कौन है, कहाँ से आया है, कहाँ जाएगा और साथ क्या ले जाएगा ? शरीर छोड़ने के पश्चात् क्या वह वापस अपने परिवार, सगे-सम्बन्धियों व आत्मीय जनों से मिल पाएगा अथवा नहीं।
उपर्युक्त प्रश्नों का जवाब लगभग प्रत्येक मनुष्य को मालूम होने पर भी वह चेत नहीं पाता और स्वप्न संसार में पशु की ही भाँति जीवन बिताता रहता है। परमात्मा की विशेष कृपा से मनुष्य को विवेक और बुद्धि मिली है। अतः उसे प्रशिक्षण यह विचार करना चाहिये कि मिला हुआ यह जीवन कैसे सफल हो।
जीव अपने सत्य स्वरूप से अचेत जन्मता है और जीवन-भर इस जड़ शरीर को अपना स्वरूप मानते हुए सभी क्रिया-कलाप करता रहता है और अन्नतः अचेतना में ही उसे छोड़कर कर्मानुसार दूसरा शरीर धारण करने के लिए चल पड़ता है। वह अपने जीवन में अर्जित समस्त स्थूल सामग्री यहीं छोड़कर अगले जीवन में सब कुछ नया सृजन करता है और हर बार जिस शरीर को धारण करता है, उसे ही अपना स्वरूप समझते हुए कर्म करता रहता है। इस प्रकार विषय वासना में बंधा हुआ जीव पाप-पुण्यादि कर्म आधारित विभिन्न योनियों में जन्म-मरण रूपी झूले में तब तक झूलता रहता है, जब तक कि उसको अपने सत्य स्वरूप की जानकारी नहीं हो जाती।
सभी विचारवान ज्ञानी जन एक ही निष्कर्ष निकाल पाए हैं कि जीव अपनी स्वप्निल सुख लालसाओं के पीछे दौड़ते-दौड़ते अन्ततः हारकर मृग मरीचिका की भांति दुखद मृत्यु को ही प्राप्त करता है। इस प्रकार मनुष्य सांसारिक व्यवहार में कभी स्थायी सुख व शान्ति को प्राप्त नहीं कर सकता।
कई बार तो ऐसा भी देखने में आता है कि आध्यात्मिक सन्मार्ग न मिलने के कारण इस मार्ग पर चलने वाले मनुष्यों का जीवन साधारण लोगों की अपेक्षा अधिक अशान्त, नीरस, उदासीन, भयाकुल व शंका से ग्रस्त हो जाता है और धीरे-धीरे उन्हें संत व भगवान पर भी विश्वास नहीं रहता। कभी-कभी तो वे अपना मानसिक सन्तुलन भी खो बैठते हैं।
ऐसी परिस्थिति का आभास कई साधकों के जीवन में देखने के पश्चात् मुझे यह पुस्तक लिखने की प्रेरणा मिली। जीवन की सफलता और उच्चतर अवस्था प्राप्त करने में यदि यह पुस्तक किसी भी साधक के लिए उपयोगी सिद्ध होती है, तो यह पूज्य गुरुजन व माता-पिता के आशीर्वाद का ही परिणाम होगा। पुस्तक में किसी भी तरह की त्रुटि के लिए मेरा अल्पज्ञान कारण हो सकता है।
डॉ. अरोड़ा ने एलोपैथी चिकित्सक होते हुए भी इस काम को केवल अपनी अजीविका का साधन नहीं बनाया। उन्होंने इस पुस्तक में प्राकृतिक जीवन और चिकित्सक पर ज़ोर दिया है। उन्होंने इस छोटी-सी पुस्तक में यह बताने का प्रयास किया है कि उचित आहार-विहार, सात्विक जीवन, शारीरिक श्रम, व्यायाम, उच्च विचार और मानसिक शान्ति आपको डॉक्टर व औषधि से बचाते हैं। उन्होंने इस पुस्तक में मनुष्य जीवन को प्रकृति और परमात्मा की एक महान सौगात बताते हुए जीवन को सरल, सहज और सफल बनाए रखने के सूत्रों को समेटने का प्रयास किया है।
डॉ. अरोड़ा मानव जीवन को उत्तम बनाने के लिये उत्सुक हैं और चिन्तित भी हैं, इसीलिये उन्होंने आज के आदमी को रोग और और दवाइयों से बचने के लिये अरोग्यता, आध्यात्मिकता, व्यक्तित्व विकास आदि पक्षों को सजाते हुए, यह पुस्तक प्रस्तुत की है।
यह पुस्तक सुखद जीवन जीने का मार्गदर्शन करती है, जो सभी धर्मावलम्बियों के लिये अनुकरणीय है। डॉ. अरोड़ा ने इस पुस्तक को लिखकर जनकल्याण का कार्य किया है।
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठक शुभ-संकल्पित होकर, न केवल स्वयं का अपितु दूसरों का भी मार्गदर्शन कर सकता है।
मनुष्य का जीवन प्रकृति और परमात्मा की एक महान सौगात है। जीवन को इस तरह जिया जाना चाहिए कि जीवन स्वयं वरदान बन जाए। मनुष्य का जीवन बाँस की पोंगरी की तरह है। यदि जीवन में स्वर और अंगुलियों को साधने की कला आ जाए, तो बाँस की पोंगरी भी बाँसुरी बनकर संगीत के सुमधुर संसार का सृजन कर सकती है। भला जब किसी बाँस की पोंगरी से संगीत पैदा किया जा सकता है, तो जीवन और माधुर्य और आनन्द का संचार क्यों नहीं किया जा सकता ?
स्वस्थ, प्रसन्न और मधुर जीवन के लिए हम अपने नज़रिए को ऊँचा और महान बनाएँ। जिस व्यक्ति की सोच और दृष्टि ऊँची और सकारात्मक होती है, वह अपने जीवन में कभी असफल नहीं हो सकता। सकारात्मक सोच संसार का वह विलक्षण मंत्र है कि जिससे यह सध गया, वह सफल जीवन का स्वतः स्वामी बन गया।
व्यक्ति को चाहिए कि वह आत्मविश्वास का स्वामी बने। कोई अगर कहे कि दुनिया में कौन सा ऐसा शस्त्र है, जिस एक शस्त्र से सौ-सौ शस्त्रों का मुकाबला किया जा सकता है, तो मैं कहूँगा कि वह शस्त्र है आत्मविश्वास। आत्मविश्वास के बलबूते पर जीवन की बाधाओं को तो क्या, बाधाओं के बड़े से बड़े पार्वती को भी लांघा जा सकता है। हम अपने जीवन का लक्ष्य बनाएँ, पुरुषार्थ जगाएँ, सोच और दृष्टि को लक्ष्य के अनुरूप होने दें। जिसके साथ आत्मविश्वास का संबल है, वह अविचल भाव से लक्ष्य की ओर बढ़ता जाएगा और लक्ष्य को पाकर ही विश्राम लेगा।
जीवन में सुख और दुःख दोनों ही आते-जाते रहते हैं। दुःख के अनंतर सुख आता है और सुख के अनंतर दुःख आता है। इस प्रकार सुख और दुःख आपस में एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। सुख-दुःख व दुःख-सुख की यह भाव श्रृंखला न जाने कब से चली आ रही हैं। इस संसार में न तो कोई पूर्ण सुखी है और न ही कोई पूर्ण दुःखी। यहाँ प्रत्येक मनुष्य प्रभु की माया के छलावे में आकर जीवन-भर बेहोशीपूर्ण व्यवहार करता रहता है। उसे यह जानने की फुर्सत ही नहीं मिलती कि वास्तव में वह कौन है, कहाँ से आया है, कहाँ जाएगा और साथ क्या ले जाएगा ? शरीर छोड़ने के पश्चात् क्या वह वापस अपने परिवार, सगे-सम्बन्धियों व आत्मीय जनों से मिल पाएगा अथवा नहीं।
उपर्युक्त प्रश्नों का जवाब लगभग प्रत्येक मनुष्य को मालूम होने पर भी वह चेत नहीं पाता और स्वप्न संसार में पशु की ही भाँति जीवन बिताता रहता है। परमात्मा की विशेष कृपा से मनुष्य को विवेक और बुद्धि मिली है। अतः उसे प्रशिक्षण यह विचार करना चाहिये कि मिला हुआ यह जीवन कैसे सफल हो।
जीव अपने सत्य स्वरूप से अचेत जन्मता है और जीवन-भर इस जड़ शरीर को अपना स्वरूप मानते हुए सभी क्रिया-कलाप करता रहता है और अन्नतः अचेतना में ही उसे छोड़कर कर्मानुसार दूसरा शरीर धारण करने के लिए चल पड़ता है। वह अपने जीवन में अर्जित समस्त स्थूल सामग्री यहीं छोड़कर अगले जीवन में सब कुछ नया सृजन करता है और हर बार जिस शरीर को धारण करता है, उसे ही अपना स्वरूप समझते हुए कर्म करता रहता है। इस प्रकार विषय वासना में बंधा हुआ जीव पाप-पुण्यादि कर्म आधारित विभिन्न योनियों में जन्म-मरण रूपी झूले में तब तक झूलता रहता है, जब तक कि उसको अपने सत्य स्वरूप की जानकारी नहीं हो जाती।
सभी विचारवान ज्ञानी जन एक ही निष्कर्ष निकाल पाए हैं कि जीव अपनी स्वप्निल सुख लालसाओं के पीछे दौड़ते-दौड़ते अन्ततः हारकर मृग मरीचिका की भांति दुखद मृत्यु को ही प्राप्त करता है। इस प्रकार मनुष्य सांसारिक व्यवहार में कभी स्थायी सुख व शान्ति को प्राप्त नहीं कर सकता।
कई बार तो ऐसा भी देखने में आता है कि आध्यात्मिक सन्मार्ग न मिलने के कारण इस मार्ग पर चलने वाले मनुष्यों का जीवन साधारण लोगों की अपेक्षा अधिक अशान्त, नीरस, उदासीन, भयाकुल व शंका से ग्रस्त हो जाता है और धीरे-धीरे उन्हें संत व भगवान पर भी विश्वास नहीं रहता। कभी-कभी तो वे अपना मानसिक सन्तुलन भी खो बैठते हैं।
ऐसी परिस्थिति का आभास कई साधकों के जीवन में देखने के पश्चात् मुझे यह पुस्तक लिखने की प्रेरणा मिली। जीवन की सफलता और उच्चतर अवस्था प्राप्त करने में यदि यह पुस्तक किसी भी साधक के लिए उपयोगी सिद्ध होती है, तो यह पूज्य गुरुजन व माता-पिता के आशीर्वाद का ही परिणाम होगा। पुस्तक में किसी भी तरह की त्रुटि के लिए मेरा अल्पज्ञान कारण हो सकता है।
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